मुक्ति का रास्ता
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अब बंदर थक चुका है। उछलने की ताकत भी नहीं बची और पहली बार वह कुछ नहीं करता। न दौड़ता है,
न लड़ता है, न भागता है, बस रुक जाता है। वह अपने भीतर उठ रहे गुस्से को देखता
है, डर को देखता है, दुख को देखता है, बेचैनी को देखता है। कुछ बदलने की
कोशिश नहीं, कुछ ठीक करने की कोशिश नहीं। सिर्फ देखना और यही कुछ बहुत सुंदर होता
है। जैसे ही बंदर की पकड़ ढीली होती है, केला अपने आप छूट जाता है। हाथ हल्का
होता है, दरवाजा खुल जाता है। बंदर बाहर है। शांत, स्थिर,
हल्का और अब जरा खुद से पूछिए क्या हम भी हर दिन यही नहीं चाहते? लेकिन हम भागते रहते
हैं, सोचते रहते हैं, लड़ते रहते हैं, जबकि मुक्ति का रास्ता रुकने से ही शुरू
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