इंसाफ और भूख का मुकदमा
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सदियों पुरानी बात है। दमिश्क की एक बस्ती में काय अब्दुल हमीद इंसाफ के चराग़ की मानिंद रोशनी
बिखेरते थे। अदालत के सहन में रोज़ाना समात होती और लोग अपनी शिकायत लेकर हाजिर होते। बाजार
की हलचल और इंसानी हुजूम की आवाजें दूर-दूर तक सुनाई देती थी। आज भी अदालत के सहन में गहमागहमी
थी और काजी अब्दुल हमीद ने जैसे ही अदालत के कमरे का दरवाजा खोला, लोगों की निगाहें
सबकी तरफ जम गई। इसी दौरान एक फकीर जिसके पास सिर्फ एक रोटी के पैसे थे,
बाजार की गलियों से गुजरता हुआ काजी अब्दुल हमीद की अदालत के सामने आया। फकीर के कपड़े पुराने
और जेबें खाली थी, मगर दिल में उम्मीद के छोटे-छोटे चराग़ रोशन थे। उसके कदम थोड़े-थोड़े आगे
बढ़ रहे थे, जैसे हर कदम के साथ खौफ और हिचकिचाहट उसके दिल में गहराई पैदा कर रहा हो।
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